खेचरी मुद्रा की साधना करने से यह माना जाता है कि भूख प्यास की इच्छा समाप्त हो जाती है और इस मुद्रा की उच्चतम व्यवस्था में अमृत स्राव की प्राप्ति होती है।
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते ।
न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेह: स जायते ।। ।।
घेरण्ड संहिता (अध्याय 3 श्लोक 28)
अर्थ:
जो साधक खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है उसे न तो कभी मूर्च्छा ( अचेतन अवस्था ) आती है, न ही उसे भूख व प्यास परेशान करती है, न उसे कभी आलस्य आता है, न ही उसे कभी कोई रोग होता है, न ही वह कभी बूढ़ा होता है और न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । बल्कि उसका शरीर देवताओं के समान कान्तिमान हो जाता है।
- खेचरी मुद्रा है क्या ?
खेचरी – खे और चारी से मिलकर बना है जहाँ खे का अर्थ है स्थान (आसमान) और चारी का अर्थ है चलना।
जब जीभ को उल्टा करते हैं तो वह तालु को स्पर्श करते हैं ; और पीछे करने से तालु प्रदेश में एक बड़े छिद्र का आभास होता है जिसे कपाल कुहर कहते हैं। जीभ का इस कपाल कुहर में प्रवेश खेचरी मुद्रा का प्रारंभिक सोपान है, उच्चतम सोपान में जिह्वा लंबी हो कर कपाल कुहर रूपी आसमान में दोनों भौं के बीच के स्थान तक पहुँच सकती है और बहुत बहुत मुश्किल है।
उच्चतम अवस्था में शरीर के उच्चतम चक्र अर्थात सहस्त्रसार चक्र से अमृत स्राव की मान्यता है।
इसे एक चित्र के माध्यम से समझें।